Wednesday, December 29, 2010

 तिहाड़ की महिला कैदियों को सलाम



 तिहाड़ जेल में 1 साल के अंदर तीसरी बार एक स्टोरी के सिलसिले में जाना हुआ...और महिला जेल में दूसरी बार...तिहाड़ जेल अपने आप एक शहर की तरह बसी है...जेल को कुल 10 जेलों में बांटा गया है...अपराधियों को उनके अपराध के हिसाब से रखा जाता है.. कुल 11500 कैदी हैं...लेकिन तिहाड़ जेल में 5500 कैदियों की ही रहने लायक जगह है. जो भी ये जेल दक्षिण-पूर्व एशिया की सबसे बड़ी जेल है...और बात करे अगर तिहाड़ की महिला जेल की जो जेल नंबर 6 कहलाती है...जिसमें 500 महिला कैदी हैं. महिला कैदियों पर स्टोरी करते हुए मुझे और मेरे कैमरामैन को तीन बार चैकिंग से गुजरना पड़ा...हमारे जूते तक दो बार खुलवाए गए...मेरे कैमरामैन लाल-पीले हो गए कि हम तो पहले भी तिहाड़ में आए हैं पर ऐसी चैकिंग पहले तो कभी नहीं हुई...मैने याद दिलाया कि हम महिला जेल में हैं...जहां हमारे चैनल की दो ही टीमें पहुंच पाईं हैं...जिनमें से एक हमारी टीम है...क्योंकि जब तक डीजी ओके नहीं करते...तब तक महिला जेल तक पहुंच पाना नामुमकिन है...पिछले साल महिला कैदी के गर्भवति होने के बाद मीडिया का पहुंच पाना नाको चने चबाने से कम नहीं...खैर हमारे मोबाइल, पर्स जमा कर लिए गए...अगर सही कहें तो हमारे कपड़े और कैमरे का ही साथ था...आखिकार हम सैलून में पहुंच गए...जिसकी हम स्टोरी के लिए पहुंचे थे...कैमरामैन संजीव के मुंह से निकला वाह...क्या ये जेल है या स्वर्ग है..हमारे पास कुछ मिनट का ही समय था...मैने जल्द शोट बनाने को कहा...सैलून में लगभग 25 कैदी थी जिनको जेल में सैलून की ट्रेनिंग हबीब की टीम दे रही थी...मैंने पिछले साल दीवाली पर इस जेल में एक स्टोरी की थी....कुछ चेहरों को पहचानने की कोशिश कर ही रहा था कि दो महिला कैदी आईं और अंग्रेजी में बोली कि प्लीज डान्ट शूट अस..इसी बीच एक 35 के करीब की कैदी पानी लेकर आईं...उन्होने कहा मेरी भी फिल्म मत बनाना...आपने मुझे पहचाना देवगन जी...मैंने कहा हां ...आपने पिछली बार भी यही कहा था....फिर उन्होने कहा कि आप बहुत स्मार्ट लग रहे हो...ये सुनकर मुझे लगा कि मैं कोई बड़ा स्टार हूं और इधर-उधर से कई चेहरे मुझे निहार रहे थे...कैमरामैन बोले जनाब टीआरपी अच्छी है...पर ये स्टार तो अपनी पीटीसी की लाइने भूल गया था...वक्त बहुत कम था...बड़ी मुश्किल से पीटीसी मन में याद कर की जा सकी...महिलायों के चेहरे पर सीखने का जज्बा और एक प्राकृतिक खुशी थी...प्राकृतिक इस लिए क्योंकि रोजमरा कि जिंदगी में हम और आप कितनी बनावटी हंसी हंसने को मजबूर होते हैं...आफिस के जिस सहयोगी से हम बात भी नहीं करना चाहते वो भी अगर हैलो बोले तो बनावटी हंसी से जवाब देना ही पड़ता है...और ये बात खासकर महिलाओं पर पक्के तरीके से लागू होती है...जहां पुरुष सहयोगियों को ना चाहते भी हाय-हैलो का जवाब देना पड़ जाता है...खैर ये बात तिहाड़ की महिला कैदियों पर लागू नहीं होती...क्योंकि वो बनावटी हंसी की दुनिया से बहुत दूर हैं...पुरुष प्रधान समाज से दूर हैं...इसीलिए मुझे एक बार भी नहीं लगा कि मैं जेल में हूं...कुछ महिला कैदियों से बात भी हुई...उनका कहना था क्राइम तो हो गया...लेकिन हमारी जिंदगी अभी बहुत लंबी है...हमें सुधरने का मौका मिला...हम समाज में जाकर अपने हाथों के हुनर से पैसे कमाएंगी...उनकी खुशी देखकर मुझे भी एक अच्छी सीख मिली कि हम फालतू ही दुखी होते रहते हैं...वैसे मैं और मेरी एक घनिष्ठ सहयोगी इस बात को मानते हैं कि इंसान तभी तक दुखी होता है जबतक वो दुखी होना चाहते हैं...हां कभी कभार हालात आपके बस के बाहर हो सकते हैं हमेशा नहीं....इसलिए किसी ने ठीक ही कहा है कि चिंता चिता समान...मुझे पता था कि मेरी ये स्टोरी हिट ही होगी...और जितना सोचा उससे अच्छा नतीजा मेरे सामने था...मेरी मां ने पहली बार मेरी किसी स्टोरी को देखने के बाद कहा कि बेटा तुम बहुत स्मार्ट लग रहे थे...मैंने मां को कहा कि एक महिला कैदी ने भी ये बात कही...मां ने कहा, मरजानी मेरे मुंडे को कही नजर तो नहीं लगा दी उसने...अब क्या बताता मां को... नजर तो पहले ही लग चुकी है...अब किसी नजर का कोई असर नहीं होने वाला....खैर उन तमाम करीबी लोगों का शुक्रिया जिन्होने गुड लक बोला था...जिनके चलते मुझे अच्छा काम करने की प्रेरणा मिलती है....

 
 
 

Tuesday, November 23, 2010

छोटे शहर के बड़े दिलवाले...




मैं अक्सर सोचता हूं कि काश मैं भी एक बड़े शहर में पैदा हुआ होता तो क्या होता...तो सबसे पहले तो मैं ये ब्लाग नहीं लिख रहा होता...दूसरा-तीसरा -चौथा कई कारण हैं...
छोटे शहर के अमीर भी बड़े शहर की भीड़ में कितने गरीब हो जाते हैं...ये मुझसे बेहतर कौन जान सकता है...मैं अक्सर अपने दोस्तों से कहता रहता हूं कि आदमी दिल से अमीर होना चाहिए..मुझे जवाब मिलते हैं कि दिल की अमीरी का अचार मुझे ही मुबारक हो...मेरा मानना है कि छोटे शहर के लोग वाकई दिल से बहुत अमीर होते हैं...बड़े शहरों में दिनदहाड़े घर लुट जाते हैं और पड़ोसियों को कानो-कान खबर नही होती...और छोटे शहरों में आपकी फ्रिज में क्या-क्या रखा है...यहां तक की खबर पड़ोसियों को होती है...पड़ोसियों की इज्जत रिश्तेदारों से ज्यादा होती है...औरतें पड़ोस में ही बहनें ढूंढ लेती हैं..जैसी मेरी मां ने निर्मल आंटी और ओमी आंटी नाम की धर्म बहनें बना ली...जब भी मैं अपने घर अमृतसर जाता हूं तो पड़ोस की आंटी का सरसो का साग बड़े स्वाद से खाता.हूं..छोटे शहरों में पड़ोसी दाल-सब्जी और दर्द सब बांटते हैं...मैं ऐसे बड़े दिल की बात करता हूं...जो दिलवालों की दिल्ली में फिट नहीं बैठती...अगर मैं भी बड़े शहर में पैदा हुआ होता तो मैं भी कई गर्लफ्रेंडस बनाने में विश्वास रखता...तो आजतक मैंने भी महिला मित्रों के साथ अकेले फिल्म देखने की हिम्मत जुटाई होती.
...अगर बड़े शहर में पैदा हुआ होता तो जिंदगी की पिच पर कभी हार ना मानने का जज्बा कैसे आया होता...रग-रग में जीतने का हौंसला कैसे समाया होता...खैर कुछ टीचर मेरी जीत की प्यास को देखकर कहते थे कि ये फौजी का बेटा हार नहीं मानता...इसे स्पोटर्स कैप्टन बना दो...
मेरा शहर छोटा था लेकिन मुझे संस्कार बहुत बड़े मिले...हमेशा वहां सबके चेहरे खिले रहते थे...जहां लोग हर दुख-सुख में एक साथ सहा करते थे...हम भी कभी ऐसे ही एक शहर में रहा करते थे...इस शहर में हर कोई खाने को दौड़ता है..दोस्त-दोस्त कहकर पीठ में कई लोगों से छुरा खा चुके हैं...इस लिए दोस्त बनाने में चूजी हो गए हैं हम...जो अच्छा लग जाए बस लग जाता है...जो पसंद ना आए वो पीछे छूट जाता है... दोस्तों पर जान देने का जज्बा मैंने अपने शहर से ही सीखा...मेरे शहर में मेरा एक ही दुश्मन बन गया था जो मेरे सबसे करीबी दोस्तों का दुश्मन था .. अब वो इस दु्निया में नहीं है...बड़े ही फिल्मी अंदाज़ में एक लड़की के प्रेम में आत्महत्या कर ली उसने... खैर बड़े शहर की बड़ी बातें हैं...महिलाओं के लिए ये दिल्ली शहर कैसा हैं ये तो सब बखूबी जानते हैं..रोजाना छेड़खानी की वारदातें बड़े शहर के बड़े दामन पर कई दाग लगाती जाती हैं जिनको छुड़ा पाना नामुमकिन है...अक्सर मेरे दिल में ख्याल आता है कि छोटे शहर के बड़े दिलवाले ज्यादा अच्छे हैं या बड़े-बड़े शहरों के छोटे दिलवाले...

Wednesday, November 3, 2010

मेरा लैंडलाइन दुनिया छोड़ गया...



आज मैं थोड़ा परेशान हूं...क्योंकि मेरे घर का लैंडलाइन फोन कट गया हमेशा के लिए...मेरा दोस्त...0183-2276504...परिवार में सभी इसको लंबे समय से कटवाना चाहते थे...मैंने हमेशा इसका विरोध किया...हम तो घर से पहले ही अपने मंजिल की तलाश में निकल चुके थे...घरवालों ने फोन को भी घर निकाला दे दिया...मैंने लाख जानना चाहा तो मेरी मां बोलीं हर कोई तो मोबाइल पर ही फोन करता है...और घर के हर सदस्य के पास मोबाइल है...बेटा तुम भी तो मेरे मोबाइल ही फोन करते हो...लेकिन मेरे लैंडलाइन से मेरी बहुत अच्छी यादें जुड़ी हैं...कईं शरारते जुड़ी है...फोन ने मुझे स्कूल के होनहार विद्यार्थी से कॉलेज की राजनीति का वाइस प्रेजिडेंट बनते देखा...मास कॉम की कक्षा में अव्वल आने की खबर भी सुनाई...
मेरे दोस्त लैंडलाइन का जन्म... मुझे आज भी याद है जब मैं कक्षा पांच में था...तब हमारे घर लैंडलाइन की नींव पड़ी...घर में अजब खुशी का माहौल था...फोन लगाने वाले बीएसएनएल कर्मचारियों को कैश बधाई के बाद...घर में पड़ोसियों की भीड़ को खुशी में बरफी परोसी गई...पंजाबी तो वैसे ही खुश होने का बहाना तलाश लेते हैं...ये खुशी उस युग में बहुत बड़ी थी...मेरी दादी को खुशी थी कि अब वो तीनों बेटियों से आराम से बात कर पाएंगी...वो फोन की घंटी मुझे आज भी याद है...जब देर रात बजती तो सबकी धड़कने तेज़ हो जाती कि इस वक्त कोई बुरी खबर तो नहीं...क्योंकि लैंडलाइन लगने के कुछ महीने बाद ही मेरे बड़े मामा की मौत की खबर देर रात को ही मेरी मां सुनकर गिर पड़ी थीं...तो ऐसी कई बुरी-अच्छी यादें लैंडलाइन के साथ जुड़ी थी...जब मैं कक्षा 10, 11 में था तो अक्सर ऐसी कॉल आती थी जिसे ब्लैंक कॉल कहते है...मेरी मां कहती थीं कि मेरे घर में कोई बेटी नहीं फिर ये कमबख्त कौन कुड़ी है जो मेरी आवाज सुनकर फोन काट देती है...तेरी तो सहेली नहीं कोई...बेटा वो मुझसे बात करे मैं उसे प्यार से समझाती हूं.. मेरे फोन उठाने पर भी फोन कट जाता...बस पंजाबी गाने सुनते थे...मैं आज तक समझ नहीं पाया कि वो कौन सी फैन थी...ये आज भी पहेली है...खैर मेरे कई दोस्त जो विदेशों में बसे हैं...उनकी जब अपनी बचपन की प्रेमिकाओं से बात ना हो पाती तो दोस्त बेहद दुखी होकर मुझसे मदद मांगते...मेरे से डायलॉग लिखवाते जिसमें..बड़े हौंसले के साथ
लड़की की मां के फोन उठाते ही बोलना कि हैलो आंटी, ममा बोल रहे हैं कि शाम को किटी पार्टी पर आ जाना...बेटे कौन ...आंटी तुसी निर्मल आंटी..नहीं पुतर..ओके आंटी...लैंडलाइन का दौर प्रेमी जोड़ों के लिए बेहद कठिन दौर था...आज तो मोबाइल ने ही प्रेम करने वाले जोड़ों की तादाद देश में बढ़ाई है और ये हमारी आपकी सबकी जिंदगी कहें या परिवार का एक हिस्सा बन चुका है...जिसके चलते हजारों लैंडलाइनों की बलि दी जा रही है...और मेरा प्यारा लैंडलाइन भी उनमें से एक था...

Monday, October 25, 2010

हिट- फिट करवाचौथ क्या है...






करवाचौथ को कुछ ही घंटे शेष हैं और बाजारों में महिलाओं का जमकर खरीददारी का दौर चल रहा है...बाजार हो या बॉलीवुड हर किसी ने करवाचौथ के व्रत को खूब भुनाया है...अक्सर मेरे दिल में करवाचौथ को लेकर कई सवाल उठते रहे हैं...मैं भारतीय महिलाओं की तपस्या या व्रत पर सवाल नहीं उठाने जा रहा हूं जो अपने पति की लंबी उम्र के लिए सदियों से करवाचौथ रखती आई हैं...क्योंकि मैंने बचपन से अपनी मां को भी करवाचौथ का व्रत रखते और इसकी तैयारी के लिए उतावलापन देखा है...शाम को प्यासे चेहरे को बड़ी हिम्मत के साथ चांद का इंतज़ार करते देखा है...लेकिन सवाल कई खड़े होते हैं कि हमारे देश में हमेशा व्रत, सारे नियम महिलाओं के लिए क्यों बने...क्यों नहीं मर्दों के लिए हमारे देश में सदियों से कोई व्रत नहीं बना...क्योंकि उनको पत्नी की लंबी उम्र से क्या लेना...पत्नी मर भी जाएगी तो दूसरी शादी हो जाएगी...लेकिन अगर एक औरत का पति उसके जीते जी मर जाए तो उसके लिए सती प्रथा भी इसी देश में थी जो समाज के ठेकेदारों ने ही बनाई होगी। आज के दौर में उत्तर भारत का ये व्रत पूरे देश में मनाया जाने लगा तो इसमें यश चोपड़ा की फिल्मों का अहम रोल है...डीडीएलजे में सिमरन ने राज के लिए जो किया...आज ज्यादातर हर युवा कर गुजर सकता है...युवा सच में यश चोपड़ा के शुक्रगुजार है कैसे पंजाबी व्रत को देश भर में हिट कर दिया...जालंधर छोड़े हुए उनको पांच दशक हो गए...लेकिन यश चोपड़ा ने अपनी फिल्मों में ऐसा पंजाबी तड़का लगाया कि सारा बाजार कायल हो गया...शाहरुख सुपरस्टार बन गए यश जी के चलते...यश जी की फिल्में हिट हुईं करवाचौथ के फेर में...
लेकिन उन महिलाओं को सलाम करने को दिल बार-बार करता है जो सदियों से कष्ट सहकर भी ऐसे व्रत का पालन करती आई है...चाहे वो आज की गृहिणी हो जा जेट उड़ाने वाले महिला पायलट...
आज नये शादीशुदा जोड़े या पति देव या ब्वॉयफ्रेंड अपनी संगिनी को खुश करने के लिए व्रत रखते हैं...उम्मीद करता हूं कि वो ताउम्र ऐसा कर सकें...लेकिन मैं ऐसा नहीं कर सकता क्योंकि मै नही चाहता कि मेरी श्रीमति भी मेरे लिए व्रत रखें..
क्योंकि मेरे हाथों में उम्र की रेखा पहले ही काफी लंबी है..इस लिए मेरी लंबी उम्र के लिए कोई दर्द क्यों सहें...जो मैं देख ना पाऊं....उम्मीद करता हूं वो शायद इसे समझ इसे समझ पाएगी।...

Monday, October 11, 2010

पहले मेट्रो कोच में सुहाना हुआ सफर...मगर



महिलाओं के नाम हो चुका है दिल्ली मेट्रो का पहला कोच...वाकई किसी ने सोचा ना था महज चार कोच वाली मेट्रो का एक कोच महिलाओं को इतनी जल्द मिल जाएगा...इस कोच ने जहां महिलाओं को काफी राहत पहुंचाई है...वहीं कुछ लोगों को ये बात गले नहीं उतर रही कि पहला कोच महिला स्पेशल होने के चलते पूरा भरता भी नहीं...वहीं बाकी कोच खचाखच भरे रहते हैं...अरे भैया भरे भी रहते हैं तो मर्दों से ही ना...सीधा क्यों नहीं कहते कि महिलाओं के ना साथ चलने से ग्लैमर कम हो गया है...कुछ लोगों का कहना है कि एक कोच नया जोड़ दिया जाता जिसको महिला स्पेशल बना देते...अब भाई साहब राय देने का कौन सा टैक्स लगता है...कुछ भाई साहब तो पहले कोच में ही सवार होना शान समझते हैं...सब कुछ जान कर भी अंजान खड़े रहते हैं...ये बाबू टस से मस तभी होंगे जब डीएमआरसी पकड़ कर जुर्माना लगाएगी.... कोच नंबर दो से ये नजारा साफ दिखता है जैसा मैंने देखा है....महिला कोच के चलते जहां महिलाओं ने राहत की सांस ली...वहीं ये कोच कुछ प्रेमी जोड़ों का भी प्यार का दुश्मन बन बैठा है... द्वारका लाइन पर एक जोड़ा हाथों में हाथ लिए खचाखच भरे कोच नंबर दो में सवार होता है...भीड़ के चलते लड़की पहले कोच की तरफ बढ़ती है...बेचारा लड़का वहीं खड़ा रहता है...लड़की महिला कोच से प्यार भरे...तो कभी गुस्से भरे इशारे करती है...लेकिन दूसरे कोच के किनारे से आदर्शवादी लड़का हिम्मत नहीं जुटा पा रहा...लड़की वापस आती है...हाथ पकड़ कर लड़के को महिला कोच में ले जाती है...लड़के को आंटियां एक अपराधी की तरह देख रही हैं जैसे वो कसाब का छोटा भाई हो...प्यार भरी कोई बात भी नहीं हो पा रही...पहले तो आधे घंटे का सफर किसी भी कोच में बिंदास कटता था...लेकिन अब लड़की को दूसरे कोच की भीड़ से दिक्कत तो लड़के को आंटियों से...
दिल्ली मेट्रो ने 2002 में अपनी शुरुआत से ही लाखों लोगों की जिंदगी आसान बना दी...वहीं सैकड़ों प्रेमी जोड़े का इश्क भी मेट्रो स्टेशनों या मेट्रो में रंग लाया होगा...इसके गवाह हम और आप ही नहीं स्टेशनों की वो सीढ़ियां भी है जिन पर कई जोड़ों ने अपनी डेट पूरी की होगी...डीएमआरसी को एक कोच ऐसे महान जोड़ों के नाम करने पर भी विचार करना चाहिए...जब जेएनयू कैंपस में प्रेमी जोड़ों के नाम जगह दी जा सकती है तो मेट्रो में क्यो नहीं....जहां मेट्रो का पहला कोच लेडीज स्पेशल होना तारीफ के काबिल है...विरोध होना तो सामान्य है...जब-जब इस देश में महिलाओं को किसी भी क्षेत्र में आरक्षण दिया जाएगा तो थोड़ा शोर-शराबा तो होगा ही...क्योंकि कुछ को आदत नहीं है ऐसे आरक्षणों को हजम करने की...

Thursday, September 9, 2010

महिलाओं का सम्मान क्यों करें...


बचपन से पढ़ता-सुनता आया हूं कि भारतीय सनातन संस्कृति दुनिया में सबसे पुरानी है...कभी-कभी मैं सोचता हूं कि जिस देश में राखी जैसा पवित्र त्यौहार मनाया जाता रहा है...उसी देश में दुनिया के सबसे ज्यादा इव टीजर्स होंगे..बड़ी शर्म की बात है..आखिर ये उसी देश में क्यों जहां बहन को सदियों से भाई रक्षा का वायदा देते रहे हैं...आज भी ज्यादातर भाई अपनी बहन की तो सुरक्षा चाहते हैं लेकिन दूसरे की बहन की ऐसी-तैसी..कोई अपनी बहन को छेड़ दे तो उसे कच्चा चबाने का दम रखते हैं...भई मर्द जो ठहरे..गुस्सा तो आता ही होगा..लेकिन ये कैसी मर्दानगी जिसमें दूसरी की बहन को छोड़ो मत...और हमारी बहन को छेड़ो मत...लेकिन हर भाई ऐसा है ये मैं नहीं कहता...मेरे कई काबिल दोस्त ऐसे हैं जिन्होने कभी इव टीजिंग में हिस्सा नहीं लिया...मेरा मानना है कि ये चीजें संस्कारों से मिलती हैं..जैसा कीड़ा बचपन में बैठ गया वैसे ही हम-आप बन गए..शहरी भारत को छोड़ दे तो आज भी महिलाएं अपने हकों के लिए जूझ रही हैं...सच तो ये है .मेरी ये बातें कुछ मर्दों को चुब जाती हैं...मैं अक्सर ये सवाल पूछता हूं -कि कितनी बार बस-ट्रेन में अगर कोई महिला खड़ी हैं तो उसे आपने सीट आफर की है...हां कोई खूबसूरत लड़की होगी तो उसे सीट मिलने के चांस ज्यादा होते हैं..हम अगर ये सोच ले कि मेरी थकी मां अगर इस आंटी की जगह खड़ी हो तो हम सीट देंगे जा नहीं...ये अपने दिल से पूछ सकते हैं...जवाब मिल जाएगा...ये मेरा आज़माया हुआ फॉर्मूला है...इस लिए मुझसे महिलाओं की इज्जत हो जाती है...और बुरे कर्मों से बच जाते हैं हम...मैं एक सवाल और पूछता हूं कि कितनी बार किसी लड़की के कम कपड़े देख कर आपकी नजरे झुक गयी...या नहीं...मानते हैं कि कम कपडे़ थे लेकिन सारा दोष लड़की पर फिर से...ये हमारे समाज का हिस्सा बन चुका है...मुझे लगता है कि महिलाएं भी इस फितरत को बखूबी समझती होंगी....ज्यादातर खोट दिमागों में भरी हुई है...जिनके कीड़ों की सफाई बहुत जरुरी है....बहुत जरुरी है.

Tuesday, September 7, 2010

एक था सतीश...एक है कॉमनवेल्थ का शेरा


शेरा कॉमनवेल्थ खेलों का शुभंकर...इसे हम लोग रोज़ टीवी पर, बैनरों पर अक्सर देख ही लेते हैं...लेकिन इस मास्क के पीछे के चेहरे को मैंने देखा है...बड़े करीब से...शेरा बने सतीश की कहानी बड़ी दिलचस्प है...चंडीगढ़ से काम की तलाश में दिल्ली के चक्कर लगाना...और फिर अचानक शेरा बनने के बाद जिंदगी ने कैसी करवट ली...ये तो चैनल, अखबार सभी ने छापा...कुछ ऐसी चीज़े भी है...जो सतीश कभी किसी को नहीं बताता..मुझे याद है जब दो महीने पहले मैं कॉमनवेल्थ हेडक्वार्टर में शेरा पर स्टोरी करना गया तो सतीश से मेरी पहली मुलाकात हुई...लेकिन खेलों का शुभंकर वहा हाउसकीपिंग का काम भी करता है..देख मुझे हैरानी हुई..सतीश ने बताया कि वो यही काम करने आया था...लेकिन आयोजकों ने, शेरा की जो ड्रेस बन कर आयी थी..उसे पहनने को कहा..मैं पहन कर आया..सर को वो भा गया...बस ऐसे बन गया खेलों का शुभंकर शेरा...सतीश ने मुझे कई निजी बातें भी बताई...चाहता तो अपनी स्टोरी में और मसाला डालने के लिए चला सकता था...लेकिन मेरे दिल ने साथ नहीं दिया...क्योंकि मुझे पता था कि मसाले के बिना भी मेरी स्टोरी हिट होगी,...हुआ भी कुछ ऐसे ही..सतीश अक्सर मुझसे फोन पर कई चटपटी बातें करता है...एक दिन उसके मुंह से निकल गया कि वो आजतक चैनल (जहां मैं रोज़ी-रोटी कमा रहा हूं...) में सबको जानता है,,,मैंने कहा कैसे...शेरा का कहना था कि वहा उसका दोस्त हाउसकीपिंग करता रहा है...मैंने पूछा सतीश अगर तुम भी करते रहे हो..तो क्या हुआ...कोई काम छोटा नहीं है...आज तुम कितना बड़ा काम कर रहे हो शेरा बनकर...सतीश ने खामोश रहकर भी मेरे सवाल का जवाब दे दिया...लेकिन आपने कभी सोचा है जो शेरा खेलों को प्रमोट करने में रात-दिन एक कर रहा है...उसे आजकल एक डर भी सताता है...खेलों के बाद कही गुमनामी में खो जाने का डर...अक्सर 10 किलो की ड्रेस में हमेशा हंसना आसान नहीं...मास्क पहन कर वो अगर रोता भी है...तो भी हम और आप उसे देख नहीं सकते...मैंने देखा है करीब से...भारत में 'save the tigers' नाम की एक मुहिम चल रही है..मैंने और मेरे एक काबिल दोस्त ने भी शेरा के लिए कुछ करने की सोची है...तांकि वो खेलों के बाद कही फिर से गुमनामी के अंधेरे में ना खो जाए...

Thursday, August 26, 2010

ये कॉमनवेल्थ क्या बला है...




कॉमनवेल्थ खेल हैं क्या मैने सोचा क्यों ना ये सवाल दिल्ली से 400-500 किलोमीटर दूर जा कर आम भारतीयों से पूछा जाए...मैंने सोचा शुरुआत वाघा बार्डर के करीब गांवों से करता हूं। इससे पहले मैं किसी से कुछ पूछता शताब्दी ट्रेन में मुझसे ही इंग्लैंड से आए एक विदेशी जोड़े ने पूछ लिया...क्या खेल हो पाएंगे...आपका मीडिया तो नेगेटिव ही बता रहा है...मैंने जैसे-तैसे समझा कर राहत की सांस ली...मैंने समझा तो दिया कि खेल तो होंगे लेकिन किस स्तर के होंगे कह नहीं सकता...मैं झूठी उम्मीद क्यों बंधाता...इन विदेशी सवालों ने मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया कि यार अपने भारत की साख तो मजाक-मजाक में दांव पर लग गई है...जिस तरह हमारे पीएम साहब आजकल खेलों को लेकर परेशान है...मैं भी थोड़ा परेशान हुआ...मैंने सोचा कि पहले तो मेरे और पीएम की बीच तीन ही समानताएं थी...लो अब चार हो गईं...पहली उनका गृह नगर अमृतसर है और मेरा भी...दूसरी वो भी आजकल दिल्ली में रहते है....मैं भी... तीसरी वो खेलों के आयोजन को लेकर परेशान हैं....मैं भी। चौथी वो खेलों की खबरों को करीब से पढ़ते-देखते हैं और मैं भी...मेरा पत्रकार का पेशा ही ऐसा है खेलों की हर खबर पर नजर रखनी पढ़ती है। खैर मैंने पूछना शुरू किया तो हर 10 में 9 लोगों को पता ही नहीं था ये कॉमनवेल्थ क्या बला है...दिल्ली में रहते हुए हम और आप तो जानते हैं लेकिन आम भारतीय तो महंगाई पर लगाम लगनी चाहिए ये चाहत रखता है। कुछ अच्छे जवाब थे खेलों से पेट नही भरेगा...ये खेल-सेल क्या है जी हमें क्या मतलब, कॉमनवेल्थ तो एक देश का नाम है जी...उस कंट्री का वीजा लग जाएगा....ये तो पंजाब के लोग थे...आप भारत में दिल्ली से दूर कही भी आजमा सकते है ऐसे ही जवाब मिलेंगे। खेलों पर हमारा 12 हजार करोड़ से ज्यादा पैसा लग गया...ये मजाक तो नहीं था...अब मैं भी पीएम की तरह दुआ ही कर सकता हूं मेरे भारत की साख को दाग ना लगे। क्योंकि दुआ से ही चमत्कार हो सकता है...चमत्कार से ही खेलों का बेड़ा पार हो सकता हैं....

Saturday, August 21, 2010

पाक बाढ़ की तस्वीर

पाकिस्तान बने पूरे 63 साल हो गये... पड़ोसी देश के इतिहास में अब तक की सबसे भीषण बाढ़ आयी हुई है.. लगभग 17 हजार लोगों को बाढ़ ने लील लिया है। लाखों लोग बेघर हो गए...पाक सरकार बड़ी बेबस नजर आ रही है...आर्थित तौर पर पहले ही कमजोर हमारे पड़ोसी की कमर बाढ़ ने तोड़ दी है...सारी दुनिया पाक की मदद के लिए आगे आ रही है...पड़ोसी देश सबकी मदद ले रहा है लेकिन भारत की 23 करोड़ की मदद लेने में शर्म
आ रही है...वाघा के रास्ते आलू की खेप लाहौर पहुंच चुकी है...तीन युद्ध लड़े है पड़ोसी को शर्म तो आएगी ही..वैसे पाक में कुछ लोग बाढ़ के लिए भी भारत को दोष दे रहे हैं...कहते है भारत ने पानी ज्यादा छोड़ दिया... भारत में भी कुछ लोग पाक को मदद देना सही नहीं मानते..कोई उनको समझाये कि बाढ़ से जूझ रहे आम पाकिस्तानी भारत के दुश्मन नहीं है...दुश्मन तो चंद लोग है जो हमेशा भारत के खिलाफ साजिश रचने को तैयार रहते हैं...लेकिन ये बाढ़ बहुत बड़ी है...मुझे ये करीब से देखने को रोज़ मिलता है क्योंकि टीवी प्रोडक्शन से जुड़ने के चलते वीजूयल्स को काट-छाट कर चलाना पड़ता है...कैसे मदद के लिए बांटे जा रहे पैकेट पाने के लिए भीड़ भागती है...मुझे 1947 की याद दिलाती है...एक तरफ बंटवारे के बाद भारत बहुत आगे बढ़ा गया..वहीं पाक हर मसले पर भारत से बहुत पीछे नजर आता है,,,यही बात पड़ोस में बैठे कुछ लोगों को बहुत चुबती है...
पाक ने हाल ही में माना है कि देश को भारत से ज्यादा खतरा घरेलू तालिबान से है...उम्मीद है कि ये बात पाक शासकों को भी जल्द समझ आ जाए...वैसे मुझे पड़ोसी देश में अपने पुश्तेनी घर की बड़ी फिक्र हो रही है..सुना है पाक पंजाब का वो हिस्सा भी बाढ़ की चपेट में है...मैं सिर्फ दुआ के अलावा कुछ भी नहीं कर पा रहा हूं... नीचे आप कुछ तस्वीरों में बाढ़ का भयानक रुप देख सकते हैं।

पाक की दूसरी तस्वीर








नीचे ब्लॉग में आप विस्तार से बाढ़ पर पढ़ सकते हैं...

Thursday, August 19, 2010

खेलों में समय कम बचा है...हाहाकार मचा है...

कॉमनवेल्थ खेलों को कम समय बचा है, लेकिन चारों तरफ मानो जैसे हाहाकार मचा है। दिल्ली का पूरा सरकारी तंत्र देर से ही सही ऐसी तैयारी में जुटा है मानो देश में कॉमनवेल्थ खेल नहीं विश्व युद्ध होने वाला है... विश्व युद्ध में हवाई हमलों के शिकार देश मलबे में बदल जाते थे.. साडी दिल्ली भी कुछ ऐसे ही खुदी पड़ी है... मलबे के ढे़र आम है.... फर्क सिर्फ इतना दिल्ली में युद्ध नहीं खेल होने है...लेकिन तैयारियां युद्धस्तर पर जरुर चल रही हैं.
मैं सोचता लोगों को अब क्यों कमियां खल रही है.. पहले हम और आप क्यों मान बैठे थे कि कॉमनवेल्थ खेल हिट होंगे... खैर अभी खेलों को हिट -प्लॉप करार देना जल्दबाज़ी होगी...लेकिन इतना जरुर है कि घोटालों की परते खुलते ही काफी लोगों की कुर्सीयां चली जाएंगी...खेलों का बजट बढ़ते-बढ़ते 12 हजार करोड़ पहुंच गया...कोई कहता 12 नहीं 16 हजार करोड़... ये खुलासे तो खेलों के बाद होने वाले खेलों उर्फ बड़े-बड़े पोल खोलो पर छोड़ देना चाहिए...जवाहार लाल नेहरु स्टेडियम पर 961 करोड़ खर्च होने की बात की जा रही है... कहते है कि नेहरू स्टेडियम की छत पर ही 100 करोड़ का खर्च आ गया..अरे भाई विदेशी कोटेड ग्लास फाइबर से बनी छत है जो बड़े-बड़े आंधी तूफानों से स्टेडियम का बचाव करेगी...जैसे मैंने एक ब्लॉग में पहले भी जिक्र किया था कि थोड़ा बहुत पैसा गेहूं रखने वाले गोदामों की छतों पर भी खर्च कर दिया जाता...तो लाखों टन गेहूं हर साल जाया ना जाता..
दिल्ली की सीएम शीला जी कहती है कि हम तो ओलंपिक के लिए भी तैयार है.. कोई मैडम को समझाये कि वो दिल मजबूत रखे और खेलों के नाम पर आलोचना झेलने के लिए भी जरा तैयार रहे.. खैर आलोचना तो दुनिया में बड़े-बड़ों की हो गई...कोई इससे मजबूत हो गया तो कोई चलता बना.. अब देखते है कि कलमाड़ी साहब क्या रास्ता चुनते थे...फिलहाल तो वो सबसे भागते ही नजर आते हैं..चलिए अब तो पीएम मनमोहन सिंह ने भी कह दिया कि खेलों को राष्ट्रीय पर्व की तरह मनाना चाहिए... दिल्ली वाले तो इसे पर्व की तरह मनाएंगे ही...बच्चों के स्कूल ही जो बंद होंगे... बच्चे इन छुट्टियों का खूब मजा लेंगे और दुआ करेंगे कि ऐसे खेल हर साल हो...जिससे वो छुट्टी मना सके..कहते है कि बच्चों की दुआ भी जल्द कबूल हो जाती है...मुझे पूरी उम्मीद है दुआ तो इस वक्त खेलों से जुड़े अधिकारी और हर वो एजेंसी कर रही होगी...जिसपर गाज गिर सकती हो...मैं और आप इन घोटालेबाज़ों के लिए ना सही... लेकिन खेलों से अपने भारत की लाज बची रहे ये दुआ तो कर ही सकते है...तो चलिए फिर देर किस बात की..अगली बार.हम कॉमनवेल्थ खेलों और कॉमन भारतीयों में कॉमनता पर बात करेंगे...

नीचे आप अपने विचार मुझे बता सकते हैं...

Sunday, August 15, 2010

15 अगस्त ये कैसा दिन...

हर साल 15 अगस्त को मैं एक ही चीज सोचता हूं कि क्या अगस्त महीने की 15 तारीख ज्यादातर भारतीयों के लिए मात्र छुट्टी का दिन बनकर रह गई है... 2010 में इस दिन ने रविवार को आ कर इस बात पर मोहर लगाने की कोशिश भी
कर दी... कभी सोचा है 200 सालों तक गुलाम रहे भारतीय उस तारीख का कितनी बेसब्री से इंतज़ार करते होंगे...जिस दिन वो खुली हवा में सांस ले पाएंगे... वो जो चाहेंगे वो कर पाएंगे...भारत आजाद हुआ कई बलिदानों से... आज भारतीय युवाओं को आमिर खान की 5 फिल्मों के नाम रटे होंगे लेकिन मात्र 5 शहीद जो आजादी के लिए फांसी को चूम गए थे को बताने में पसीने छूट जाएंगे...ये आजाद भारत या आज के भारत की तस्वीर है...हम विचारों से तो आधुनिक हो रहे हैं लेकिन हम आज भी गुलाम है...गुलाम किसके गुलाम..अब अंग्रेज नहीं तो अंग्रेजी के गुलाम हैं हम... आज भारतीय हर जगह अंग्रेजी झाड़ना सम्मान की बात समझते हैं और हिन्दी बोलना अपमान समझा जाने लगा है। हमारे पड़ोसी देश चीन और रुस से हमें कुछ सीख लेने की जरूरत है...इन देशों में भी अंग्रेजी बोली जाती है लेकिन सिर्फ गुजारे के लिए.. जिससे वो दुनिया को समझ सके और उसका जवाब दे पाएं... उनकी राष्टभाषा उनके लिए सम्मान की बात है..और हमारे लिए अब तो बहुत देर हो गई लगती है...1947 के बाद ही ये कार्य शुरू किया जाना चाहिए.. आजादी के बाद जैसा सारा भारत जनसंख्या बढ़ाने में जुट गया...हमारी सरकार जब जागी तो ये आंकड़ा 100 करोड़ पार कर गया था
.हमारा देश बड़ी तेज़ी से आगे बढ़ रहा है... पर उतनी ही तेज़ी से हमारे संस्कार पीछे छुटते जा रहे हैं...
1923 में एक पंजाबी युवक कहा करता था कि गौरे साहब जाएंगे तो भूरे साब आ जाएंगे...जो देश को खूब खाएंगे...वो हमारे नेता कहलाएंगे... ये भविष्यवाणी आजाद भारत पर बड़ी फिट बैठती है...वो युवक थे शहीद भगत सिंह.. देश के लिए छोटी सी उम्र में फांसी को चूमना... ये बात मुझे आज भी मुझे प्रेरित कर जाती है...
शहीदों की देशभक्ति मुझे कहती है कि उनके बलिदान ना जाएं जाया
मेरे भारत को फिर से गुलाम ना जाए बनाया... गुलाम ना जाए बनाया...

Thursday, August 12, 2010

मेरे देश में गेहू सड़ रहा है...

आज देश चाहे जितनी तेज़ी से आगे बढ़ रहा है....

क्या दुनिया में ऐसा भी कोई देश है जहां इतना गेहूं सड़ रहा है

मै आपसे और अपने आप से पूछता हूं ये सवाल, खेलों के नाम पर छली गई आम जनता की खाल

कॊमनवेल्थ के नाम पर जितना उड़ाया गया सरकारी माल, तो गेहूं छुपाने में क्यों रहे हम कंगाल

स्टेडियमों को खूब चमकाया जा रहा है, लेकिन हमसे आजादी के 60 साल बाद भी गेहूं नहीं छुपाया जा रहा है

आज देश में गरीब भूख से मर रहा है..दो जून की रोटी के लिए लड़ रहा है... लेकिन मेरे देश में गेहूं सड़ रहा है... गेहूं सड़ रहा है

खेलों के बजाए इतना पैसा अगर गोदामों पर लगाया जाता.. तो मेरे देश का सोना...गेहूं जाया ना जाता..

देश में ऐसे बड़े खेल बेशक होने चाहिए.. लेकिन उससे पहले हमारे देशवासी भरपेट सोने चाहिए..

बच्चों भूख से नहीं रोने चाहिए... हर बच्चे के स्कूल जाने के सपने नहीं खोने चाहिए..आज मध्यवर्गीय भारतीय महंगाई से लड़ रहा है....जरुरी सामान खरीदने से पहले हमें क्यों सोचना पड़ रहा है...लेकिन मेरे देश में गेहूं सड़ रहा है... गेहूं सड़ रहा है...

पंजाब में थाली में अन्न छोड़ना पाप माना जाता है, लेकिन शर्म से ये बताना पड़ रहा है कि सबसे अधिक

गेहूं वही गेहूं सड़ रहा है.. और आंकड़ा बाकि राज्यों में भी बढ़ रहा है...हर राज्य सरकार का नुमाइंदा केंद्र पर आरोप मढ़ रहा है.. लेकिन मेरे देश में गेहूं सड़ रहा है...मेरे देश में गेहूं सड़ रहा है...

Monday, July 19, 2010

दुखिया सब संसार...

आज जिसको देखो वो दुखी है। किसीको मकान का दुख है, किसी को दुकान का दुख है, किसी को कम होती शान का दुख है, हर रोज़ पिटते प्लान का दुख है। मियां को श्रीमति का, बीवी को पति का, किसी को रोज़गार में होती क्षति का...कोई नहीं मिलता सुखी है, आज जिसको देखो वो दुखी है...
कोई बॉस से दुखी है, कोई रोग से दुखी है, कोई मोटापे में बेअसर योग से दुखी है, नौकर मालिक के भोग से दुखी है, कोई प्रेम रोग से दुखी है, किसीको फिल्मी कैटरीना नहीं वही छोकरी चाहिए, किसकी को अच्छी पगार वाली नौकरी चाहिए। किसी को इनकम टैक्स बचाना है, किसी को खूब नाम कमाना है... मां-बाप को कुछ बन कर दिखाना है, कोई नहीं मिलता सुखी है, जिसको देखो वो दुखी है।
जब दुखिया सब है संसार जब राजनेता भी कैसे बचेंगे इस बार.. पार्षद महोदय एमएलए ना बन पाने से दुखी हैं, एमएलए साहब अभी सांसद ना बन पाने से दुखी हैं तो सांसद जी तो मंत्रीमंडल में ना चुने जाने से दुखी हैं, अरे जो मंत्री बन गए वो तो कैबिनेट मंत्री बनने को दुखी हैं, कई वरिष्ठ मंत्री खुद को प्रधानमंत्री ना बनाए जाने पर दुखी हैं, ये क्या प्रधानमंत्री अपनी कुर्सी बचा पाने की कवायद से दुखी है, अगर देश के सबसे बड़े पद पर बैठा आदमी भी दुखी है तो हमलोग तो सही दुखी हैं, वैसै मैं भी दुखी हूं, बड़ा निजी मामला है बता नहीं सकता, ब्लॉग पर जता नहीं सकता...बस मेरे ये विचार हैं...क्योंकि दुखिया सब संसार है...

Wednesday, July 14, 2010

मेरे देश का क्या है नाम...

मैं अक्सर ये सोचता हूं मेरे देश के भारत और इंडिया दो हैं नाम
लेकिन मैं इंडिया में रहता हूं क्योंकि भारत में रहने वालों का बुरा हाल है
वो दिनों दिन हो रहा कंगाल है, भारत में तो नक्सल का मायाजाल है
राजधानी दिल्ली में मैं रहता हूं इसलिए अपने को इंडियावासी कहता हूं
देश के राज्यों को सिलसिलेवार ढंग से मैने छांटा है और फिर इनको भारत या इंडिया में बांटा है
देश के राज्यों में या तो खुशहाली है या हरियाली नहीं तो बदहाली है
किसी राज्य का हम नहीं लेंगे नाम, नहीं करेंगे किसी को बदनाम
खुशहाल राज्यों की खुशहाली का फायदा हमारे नेता, उन राज्यों की अमीर जनता ही उठाती है, जो हर दिन और अमीर या खुशहाल होती जाती हैं...
हरियाली राज्यों का फायदा नक्सली उठाते हैं जो हमले करने के बाद कहीं भी छिप जाते हैं, हमारे सुरक्षाबलों को शहीद कर अपनी भूख मिटाते हैं..
बदहाल राज्यों में लोग रोते कैसे होंगे वो खाली पेट सोते कैसे होंगे, ये बड़ा सवाल है, सूखे से, रोगों से, भूख से लड़ते उनकी टूट गई है कमर...
सरकार की दी गई मदद नहीं पहुंच पाती, जनता एक वक्त के खाने को है तरस जाती..
ये बदहाली अगर हरियाली की तरफ बढ़ी तो नक्सलियों को बढ़ावा मिलेगा और ये हरियाली अगर खुशहाली की तरफ बढ़ी तो हमें भी चढ़ावा मिलेगा....

Tuesday, July 13, 2010

प्यार का मीटर...

दुनिया में इतने हो गए आविष्कार
लेकिन देवगन यार, प्यार मापने का अगर कोई बन जाए औजार
तो एकतरफा प्रेम करने वालों को भी मिल जाएगा हथियार
प्रेमी जैसे करता इज़हार, लड़की करने वाली होती 10 बहाने बता इंकार
प्रेमी बोलता ये लो प्यार का मीटर, मेरे दिल में लगा है तुम्हारे प्यार का हीटर,
अच्छा अभी माप लेती हूं, लो सबकुछ जांच लेती हूं,
अरे-अरे तुम तो मुझसे करते हो 100 डिग्री प्यार, पिछला वाला तो 99 डिग्री करता था यार,
लेकिन तुम मुझे पहले क्यो नहीं बताए, पहले क्यों नहीं इजहार फरमाए
प्रेमी- अरे कंपनी ने मीटर ही अभी-अभी बनाए, हम विदेश से किराए पर है इसे मंगवाए, एक महीने की पगार है लगाए, तो इस तरह दोस्तों कुछ आशिकों के चेहरे खिल भी जाते,
कुछ गुमनाम हमसफर मिल भी जाते। कुछ आशिक हिल भी जाते,
मौका-ए-वारदात पर अंडों की तरह छिल भी जाते
जो इस टेस्ट में फेल हो जाते, उनके साथ-साथ बड़े-बड़े खेल हो जाते,
वो कभी प्रेम के मैदान पर मेल ना खाते,
दोस्तों ऐसा अगर कोई मीटर अगर बन जाते
तो शायद दुनिया के आधे से ज्यादा जोड़े छूट जाते,
बनने से पहले ही टूट जाते, सारी मस्ती-मीटर गेम जीतने वाले लूट जाते
अगर किसी नामचीन कंपनी ने ऐसे प्यार के मीटर बनाए होते

तो हम भी प्रेम के टेस्ट में अव्वल आये होते,
दोस्तों उन युवाओं को इसकी दरकार है
जिन्होने कभी-कहीं या किसी से किया so called सच्चा प्यार है..
क्या अटपटा शब्द लगता ये सच्चा प्यार है, true love की बहार है
दोस्तों आपको लगता है कि प्रेम के मीटर का होना चाहिए आविष्कार
या इनके बिना भी तो चल रहा प्रेम का संसार, जरुर बताये मुझे अपने विचार

Sunday, July 11, 2010

अगर पाक ना बना होता....

जब मैं अपने गृह नगर अमृतसर के बार्डर से सरहद पार देखता हूं तो मैं अक्सर सोचता हूं कि आखिर क्या फर्क है हिंदोस्तान और पाकिस्तान में ,मैं हर बार एक ही नतीजे पर पहुंचता हूं कि अगर पाकिस्तान ना बना होता, तो शायद सरहद पार का वो पाक कहलाने वाला हिस्सा भी और खुशनसीब होता, भारतीयों के लिए भी ये एक फायदे का सौदा होता। भारत चीन को बराबरी की टक्कर दे रहा होता, भारत को अकरम सरीखे तेज़ गेंदबाजों का बड़ा यूनिट मिल गया होता , क्रिकेट का विश्व कप हमने दो बार जीत लिया होता, शायद लाहौर की गलियों में हर दूसरे दिन बम ना फट रहा होता शायद ही मुहाजीर नाम किसी को मिला होता, भारत ने सिर्फ एक ही युद्ध चीन के खिलाफ लड़ा होता, मेरा भारत भी और बड़ा होता, बड़ा सवाल ये कि लादेन का क्या होता, अगर पाक हमारा हिस्सा होता तो अफगानिस्तान हमारा पड़ोसी होता, तब लादेन का क्या होता वो तो भारत में ही छिपा होता, अमेरिका और रूस को भी एक नुकसान होता, वो अपने हथियारों की खेप को कहां बेच पाते, कहां से अरबों रुपये कमाते, दोस्तों अगर भारत पाक दो मुल्क ना बन पाते तो मेरे दादा भी लाहौर से ना आते तो हम भी इस मुद्दे पर ना लिख पाते, वैसे एक मशहूर शायर ने लिखा है, ( जिने नहीं वेखिया लाहौर ओहदे जमन दा कि फैदा) जिसने लाहौर नहीं देखा उसका मानव जन्म लेना बेकार है , ये बंदा भी अपना पुश्तैनी घर देखने को बेकरार है, पड़ोसी मुल्क के हालात सही होने का इंतज़ार है, सही होने का इंतज़ार है....