Thursday, June 7, 2012

हादसों के इस शहर में...क्या पता कुछ भी नहीं



लाख चलिए सर बचाकर...फायदा कुछ भी नहीं
हादसों के इस शहर में...क्या पता कुछ भी नहीं
उस किराने की दुकान वाले को सहमा देखकर
मॉल मन ही मन हंसा..पर कहा कुछ भी नहीं

काम पर जाते मासूम बचपन की व्यथा
आंख में रोटी का सपना और क्या कुछ भी नहीं

कुछ दोस्त दिलों जान से मरते थे जिनपर
लेकिन कहा उनसे कभी कुछ भी नहीं
रात भर एकतरफा इश्क में आहें भरने का तो लिया पूरा मजा
लेकिन इजहार की हिम्मत जिगर में कुछ भी नहीं...
लिखवाई मुझसे भी दोस्तों ने इश्क पर कविताएं..
मेरी मदद  का भी फायदा उनको मिला ज्यादा कुछ भी नहीं..
कुछ कामयाब होते. अगर दिल से सच में किसी को चाहा होता..
खुदा से मांगा भी..लेकिन खुदा को सच्चाई उनके इश्क में दिखी कुछ भी नहीं..
लाख चलिए सर बचाकर...फायदा कुछ भी नहीं

दुनिया में ज्यादातर इंसान  समझता है खुद को तीस मार खान
खुदा ने बनाया इंसान को ऐसा कुछ भी नहीं..
दुख में इंसान को याद आता है भगवान
सुख में नजर आता कुछ भी नहीं
इस देवगन को नजर आते हैं..ज्यादातर मतलबी इंसान
अच्छे लोगों की गिनती ज्यादा कुछ भी नहीं..

लाख चलिए सर बचाकर...फायदा कुछ भी नहीं
हादसों के इस शहर में...क्या पता कुछ भी नहीं..