Sunday, November 6, 2011

हिंदी....हिंदोस्तान में, क्यों हो हर जुबान पे...

हिंदी को भारत में राष्ट्रभाषा का दर्जा नहीं है...लेकिन राजभाषा होते हुए भी हिंदी भारत में वो कमाल कर जाती हैं जो शायद ही कोई ओर भाषा कर पाती...पत्रकारिता से जुड़े होने के चलते या वैसे कभी मुझे चाहे यात्रा करने कोई भी मौका मिलता है तो हिंदी की ताकत का अहसास हो जाता है...दुनिया भर में एक मुल्क से दूजे से संपर्क साधने में जो कमाल अंग्रेजी भाषा करती है... वही कमाल भारत में हिंदी करती है...उदाहरण के तौर पर पंजाब, गुजरात को ले सकते हैं...भाषा के आधार पर आज का पंजाब बना..हरियाणा को भाषा के आधार पर ही सियासी दलों नें पंजाब से अलग किया...पंजाब , गुजरात में हिंदी बोल समझ सकते हैं, लेकिन लहजा चाहे इतना शुद्ध हो ना हो...हिंदी को भारत के कोने-कोने तक पहुंचाने में बड़ा योगदान हिंदी फिल्मों का भी हैं...वो बात अलग है कि दक्षिण भारत पहुंचते हिंदी की हालत थोड़ी पतली हो जाती है....वहां पर लोग हिंदी समझ तो लेते हैं..बोलने में झिझकते हैं...आरोप लगते रहे हैं कि वो लोग हिंदी बोलना नहीं चाहते...शायद आजादी के बाद वो प्रसार हिंदी का वहां हो ना पाया हो...इसलिए वहां की फिल्म इंडस्ट्री भी अलग है...वहां तक हिंदी पहुंच भी कैसी पाती..भई हिंदी तो राजभाषा थी ना कि राष्ट्रभाषा....नार्थ-ईस्ट में भी हिंदी की हालत नाजुक ही हैं...मुझे लगता है कि माओवादी या विदेशी ताकतें भारत को तोड़ने की जो कोशिश करते हैं ..अगर हिंदी वहां भी मजबूत होती तो शायद ही उनको इतना बल ना मिलता.. भारत में हिंदी की ताकत को अहसास करना हो तो आप देख सकते हैं कि अब तक हिंदी पट्टी ने देश को कितने प्रधानमंत्री दिए...देश की राजनीति में हिंदी बेल्ट के नेताओं की कितनी तूती बोलती रही है...ये कहना गलत नहीं होगा कि पूरे देश को हिंदी एक धागे की तरह बांध कर रखने में अहम योगदान निभाती हैं...भले ही मेरी मातृ-भाषा जिसे पंजाब में मां-बोली कहते हैं पंजाबी है..लेकिन मेरा हिंदी के प्रति भी पूरा सम्मान हैं..क्योंकि हिंदी के चलते ही मैं ज्यादातर भारतीयों से जुड़ा महसूस करता हूं...
और इससे ही मेरी रोजी-रोटी भी चलती है...

Saturday, October 29, 2011

जब अन्ना के रंग में रंगा ' तिरंगा'

20 अगस्त का दिन मेरी जिंदगी का एक रोमांचक दिन बन गया...अन्ना हजारे की बदौलत..अन्ना का आंदोलन 16 अगस्त को शुरु हुआ था और 20 अगस्त आते-आते ये जनआंदोलन चरम पर था। मैं अन्ना के आंदोलन पर एक स्टोरी करना चाह रहा था जो कुछ हटकर हो..मेरी एक सहयोगी ने कहा कि अन्ना के आंदोलन में तिरंगे कहां से आ रहे हैं, वो ऐसी स्टोरी कर सकती हैं...लेकिन व्यस्त होने के चलते वो चाह कर भी नहीं कर सकती...तुम क्यों नहीं करते मुनीष...मैं क्या बताता मैं तो पहले ही करने वाला था...लेकिन आइडिया को जल्द स्क्रीन पर भुनाना चाह रहा था..मैं अन्ना के ऐतिहासिक आंदोलन पर एक अदद स्टोरी करना चाह रहा था क्योंकि बचपन से ही जेपी आंदोलन के बारे में पढ़ते-सुनते आ रहा था...लेकिन जानकार इसे जेपी आंदोलन से बढ़ा मान रहे थे...इसलिए मौका हाथ से जाने नहीं देना चाहता था...अन्ना का आंदोलन एक बड़ा आंदोलन इसलिए बनता जा रहा था क्योंकि हर भारतीय हाथ में तिरंगा लेकर रामलीला मैदान पहुंचना चाह रहा था...जो नहीं पहुंच रहा था वो भी टीवी पर देखकर इससे जुड़ा महसूस कर रहा था। देश से हर कोने से लोग आ रहे थे जो अपने को सरकारी नीतियों से त्रस्त मान रहे थे । हाथ में तिरंगा लेकर हमारे कैमरे पर बोलने वालों की कोई कमी नहीं थी...जनसैलाब इतना कि आंखें थक जाए लेकिन हर घंटे के साथ लोग बढ़ते जाए...लोग कहते थे, सर हम फलाने प्रांत से आए हैं, हम सिर्फ आपके चैनल पर ही कुछ कहना चाहते हैं...लेकिन मीडिया के इतने लोगों का भी मेला था जो अपने में भी एक रिकॉर्ड था जो लंबे समय तक कायम रहेगा..राजधानी दिल्ली में रमजान के महीने 24 घंटे तिरंगे बन रहे थे...कारीगर भी खुश थे, फैक्टरी मालिक भी...तिरंगा लेकर पहुंचे क्या बच्चे...क्या बूढ़े अन्ना के रंग में रंगे थे....नारा भी था "मैं भी अन्ना"। तिरंगे के साथ भारतीयों की नजदीकी क्रिकेट मैचों में तो हमने देखी ही हैं लेकिन मैं अपने गृह नगर के वाघा बॉर्डर पर भी देखता आया हूं...पर रामलीला मैदान झूमते भारतीयों की जो नजदीकी तिरंगे के साथ बढ़ी वो वाकये काबिलेतारीफ थी।